आज मैं जो लिखने जा रही हूँ, वो शायद कई लोगों को चौंका दे, कुछ को गुस्सा दिलाए और कुछ शायद चुपचाप सहमति में सिर हिला दें। मैं 25 साल की हूँ, शादीशुदा। मेरा नाम… चलिए रिया ही रहने देते हैं। ये मेरी कहानी है, या यूँ कहूँ कि मेरी उस ज़िंदगी का एक हिस्सा है जिसे मैं दुनिया की नज़रों से छिपाकर जी रही हूँ।
मेरी शादी आमिर से हुई, लगभग तीन साल पहले। अरेंज मैरिज थी, लेकिन आमिर बहुत अच्छे इंसान हैं। ख्याल रखने वाले, ज़िम्मेदार और समाज में जिनकी इज़्ज़त है। वो मुझे प्यार भी करते हैं, अपने तरीके से। हमारी ज़िंदगी एक सीधी-सादी पटरी पर चल रही थी – सुबह ऑफिस, शाम को घर, वीकेंड पर कभी-कभार बाहर घूमना। सब कुछ वैसा ही था जैसा एक ‘आदर्श’ शादीशुदा ज़िंदगी में होता है। पर शायद ‘आदर्श’ हमेशा ‘रोमांचक’ नहीं होता।
मुझे कभी शिकायत नहीं रही आमिर से, सिवाय इसके कि हमारी ज़िंदगी में एक तरह की… स्थिरता आ गई थी। एक ठहराव। वही बातें, वही रूटीन। मैं जवान हूँ, मेरे अंदर ख्वाहिशें हैं, एक अनदेखे रोमांच की तलब है। पर ये बातें मैं किससे कहती? आमिर अपनी दुनिया में खुश थे, और मैं उनकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढने की कोशिश करती रही।
फिर हमारी ज़िंदगी में, या यूँ कहूँ कि मेरी ज़िंदगी में, कबीर आया। वो हमारे पड़ोस में रहने आया था, कुछ महीने पहले। उम्र में मुझसे बस दो-एक साल बड़ा होगा। पहली नज़र में ही उसमें कुछ ऐसा था जिसने मुझे अपनी ओर खींचा। उसकी बातें, उसकी हंसी, उसका बेपरवाह अंदाज़… सब कुछ आमिर से बिल्कुल अलग था।
शुरुआत में बस हाय-हैलो होती थी। कभी बालकनी में, कभी सोसाइटी के गार्डन में। फिर धीरे-धीरे बातें बढ़ने लगीं। हम कॉफी पर मिलने लगे, “बस यूँ ही” का बहाना बनाकर। मुझे याद है, पहली बार जब उसने मेरा हाथ थामा था, एक अजीब सी सिहरन मेरे पूरे बदन में दौड़ गई थी। वो एहसास मैंने सालों से महसूस नहीं किया था।
आमिर को मैं धोखा नहीं देना चाहती थी। आज भी नहीं देना चाहती। लेकिन कबीर के साथ बिताया हर पल मुझे ज़िंदा महसूस कराता था। वो मुझे वैसे देखता था जैसे मैं दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हूँ। उसकी बातों में वो जूनून था, वो पैशन था जिसकी मुझे शायद अनजाने में ही तलाश थी।
और फिर, एक दिन… हम अपनी सीमाओं को लांघ गए। मुझे पता है, ये गलत था। समाज की नज़र में, नैतिकता की नज़र में, हर नज़र में। मेरे अंदर अपराधबोध भी था। रात-रात भर सो नहीं पाती थी। आमिर का मुस्कुराता चेहरा देखता तो दिल में एक टीस उठती थी।
मैंने कबीर से दूर जाने की कोशिश भी की। कई बार। लेकिन मैं खुद को रोक नहीं पाई। उसके बिना मेरी दुनिया फिर से बेरंग लगने लगती थी। वो एक नशा बन गया था, जिसकी मुझे लत लग चुकी थी।
धीरे-धीरे, अपराधबोध की जगह एक अजीब सी शांति ने ले ली। या शायद मैंने खुद को समझा लिया था। आमिर मेरी ज़िंदगी की ज़रूरत हैं – वो मेरा घर हैं, मेरी सामाजिक पहचान हैं, मेरा सुरक्षित किनारा हैं। और कबीर… कबीर मेरी ज़िंदगी का वो रोमांच हैं, वो ख्वाब हैं जिसे मैं हकीकत में जी रही हूँ।
अब मैं इस दोहरी ज़िंदगी की आदी हो चुकी हूँ। आमिर के साथ मैं एक अच्छी पत्नी हूँ, उनकी हर ज़रूरत का ख्याल रखती हूँ, उनके परिवार को अपना मानती हूँ। और जब आमिर ऑफिस चले जाते हैं, या जब मुझे ‘अकेले वक़्त’ की ज़रूरत होती है, तो कबीर मेरी ज़िंदगी में रंग भर देता है।
हाँ, डर लगता है। पकड़े जाने का डर, समाज का डर, आमिर के टूटने का डर। लेकिन इस डर के साथ जीने में भी एक अलग तरह का थ्रिल है। शायद मैं स्वार्थी हो गई हूँ। शायद मैं गलत हूँ। लेकिन सच कहूँ तो… अब मुझे ये सब ठीक लगने लगा है। मैं आमिर को खोना नहीं चाहती, और कबीर के बिना रहना भी अब मुमकिन नहीं लगता।
मैं जानती हूँ कई लोग मुझे जज करेंगे। कहेंगे कि मैं अपने पति को धोखा दे रही हूँ, अपने रिश्ते का मज़ाक बना रही हूँ। पर क्या किसी ने मेरे अंदर के खालीपन को समझने की कोशिश की? क्या किसी ने ये जानने की कोशिश की कि क्यों एक शादीशुदा औरत किसी और की तरफ खिंच जाती है?
मैं नहीं जानती कि ये कब तक चलेगा। शायद एक दिन सब कुछ खत्म हो जाए। शायद कोई तूफ़ान आए और सब कुछ बिखेर दे। लेकिन जब तक ये चल रहा है, मैं इसे ऐसे ही चलने देना चाहती हूँ। ये मेरी सच्चाई है, जिसे मैं जी रही हूँ – एक पति के साथ सामाजिक सुरक्षा और एक पड़ोसी के साथ नाजायज़ रिश्ता। और मुझे ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि… हाँ, अब मुझे ये सब अच्छा लगने लगा है। ये मेरी ज़िंदगी है, मेरे फैसले हैं, और इसका अंजाम भी मेरा ही होगा।
शायद आज की दुनिया में ऐसे रिश्ते आम हो रहे हैं, या शायद हमेशा से थे, बस अब खुलकर सामने आने लगे हैं। आप क्या सोचते हैं?