मेरी उलझी डोर: तीन प्यार, एक सच और अनगिनत डर

आज जब मैं ये लिख रही हूँ, तो मेरे हाथ कांप रहे हैं। शायद इसलिए कि मैं वो सच कागज़ पर उतारने जा रही हूँ जिसे मैं खुद से भी छिपाती आई हूँ। या शायद इसलिए कि इस सच का वज़न इतना ज़्यादा है कि मेरी रूह तक कांप उठती है। मेरा नाम मीरा है, 24 साल की, एक आम सी दिखने वाली लड़की, जिसके सपने भी आम थे – एक प्यार करने वाला साथी, एक खुशहाल ज़िंदगी। पर ज़िंदगी ने मेरे लिए कुछ और ही जाल बुन रखा था।

आज मैं एक साथ तीन जिंदगियों का हिस्सा हूँ, या यूँ कहूँ कि तीन ज़िंदगियाँ मेरे इर्द-गिर्द घूमती हैं, और मैं उन तीनों की धुरी बनी हुई हूँ। रोहन, समीर, और कबीर – ये वो तीन नाम हैं जो मेरी साँसों में बसते भी हैं और मुझे हर पल एक अनजाने डर से भरते भी हैं।

रोहन – मेरा पहला प्यार। कॉलेज के दिनों का वो मासूम सा इश्क़। वो समझदार है, शांत है, और मुझे लेकर बहुत प्रोटेक्टिव। उसके साथ मैं खुद को महफूज़ महसूस करती हूँ। हमारा रिश्ता एक शांत नदी की तरह है, गहरा और स्थिर। वो मेरे भविष्य के सपने देखता है, हमारे एक छोटे से घर के, बच्चों के। वो नहीं जानता कि उसकी ये शांत नदी कब किसी तूफ़ान की चपेट में आ जाए।

समीर – मेरी ज़िंदगी का वो तूफ़ान जो मुझे बहा ले गया। हम ऑफिस में मिले। वो मज़ेदार है, एडवेंचरस है, और उसकी बातों में एक ऐसा जादू है कि मैं खुद को भूल जाती हूँ। उसके साथ हर पल एक नई खोज जैसा होता है। उसने मुझे जीना सिखाया, खुलकर हंसना सिखाया। हमारा रिश्ता एक धधकती आग की तरह है, जोशीला और बेपरवाह। वो मेरे साथ दुनिया घूमना चाहता है, हर वो पागलपन करना चाहता है जो हमने कभी सोचा भी न हो। उसे क्या पता कि इस पागलपन की कीमत क्या हो सकती है।

और कबीर – मेरी ज़िंदगी का वो रहस्य जिसे मैं सबसे छिपाकर रखती हूँ, यहाँ तक कि कभी-कभी खुद से भी। वो एक आर्टिस्ट है, थोड़ा मूडी, थोड़ा गहरा। हम एक आर्ट गैलरी में मिले थे। उसकी आँखों में एक अजीब सी कशिश है, जो मुझे उसकी तरफ खींचती है। उसके साथ मैं वो बातें करती हूँ जो किसी और से नहीं कर सकती। वो मेरी रूह को समझता है, या शायद मैं ऐसा सोचना चाहती हूँ। हमारा रिश्ता एक अनसुलझी पहेली की तरह है, रहस्यमयी और नशीला। वो कहता है कि मैं उसकी म्यूज़ हूँ, उसकी प्रेरणा। पर वो नहीं जानता कि उसकी ये म्यूज़ कितने मुखौटे पहने हुए है।

हाँ, मैं इन तीनों के साथ रिश्ते में हूँ। और ये सिर्फ भावनात्मक रिश्ता नहीं है। हम तीनों के साथ मेरा शारीरिक संबंध भी है। मुझे पता है, ये पढ़कर कई लोग मुझे जज करेंगे। कहेंगे कि मैं चरित्रहीन हूँ, धोखेबाज़ हूँ। शायद मैं हूँ भी। लेकिन क्या किसी ने ये जानने की कोशिश की कि मैं इस उलझन में कैसे फँसी?

शुरुआत में ऐसा नहीं था। रोहन के साथ सब ठीक चल रहा था, पर वक़्त के साथ हमारे रिश्ते में एक ठहराव आ गया था। वही बातें, वही रूटीन। मुझे कुछ नया चाहिए था, कुछ अलग। तभी समीर मिला। उसने मेरी ज़िंदगी में वो रंग भरे जिनकी मुझे कमी महसूस हो रही थी। मैं रोहन को छोड़ना नहीं चाहती थी, पर समीर के आकर्षण से खुद को बचा भी नहीं पाई।

और फिर कबीर… कबीर के साथ मेरा जुड़ाव बिल्कुल अलग था। वो मेरी आत्मा को छूता था। उसके साथ मैं खुद को पूरा महसूस करती थी।

धीरे-धीरे, मैं इस जाल में उलझती चली गई। हर एक के साथ बिताया वक़्त मुझे अच्छा लगने लगा। रोहन की स्थिरता, समीर का रोमांच, और कबीर की गहराई – मुझे इन तीनों की ज़रूरत महसूस होने लगी। ये तीनों मेरी ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं को पूरा करते थे।

लेकिन इस खुशी के साथ एक डर भी हर पल मेरे साथ रहता है। डर, कि कहीं किसी को पता न चल जाए। डर, कि अगर सच सामने आया तो क्या होगा। ये तीनों मुझसे बहुत प्यार करते हैं, मुझ पर अंधा विश्वास करते हैं। मैं सोच भी नहीं सकती कि सच जानने के बाद उन पर क्या बीतेगी। उनका दिल टूट जाएगा, उनका विश्वास टूट जाएगा। और मैं… मैं शायद खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी।

कई बार मैंने सोचा कि मैं सब खत्म कर दूँ। किसी एक को चुन लूँ, या सबसे दूर चली जाऊँ। पर मैं नहीं कर पाती। मुझे इन तीनों की लत लग चुकी है। उनके बिना मेरी ज़िंदगी अधूरी लगती है। ये एक ऐसा नशा है जिसे मैं छोड़ना नहीं चाहती, भले ही इसका अंजाम कुछ भी हो।

रात को जब मैं अकेली होती हूँ, तो ये सवाल मुझे सोने नहीं देते। क्या मैं वाकई इतनी स्वार्थी हूँ? क्या मुझे किसी की भावनाओं की परवाह नहीं? या मैं बस अपनी खुशियों के पीछे भाग रही हूँ, बिना ये सोचे कि इससे कितने दिल टूटेंगे?

समाज मुझे कभी नहीं समझेगा। उनके लिए मैं एक ‘गिरी हुई’ लड़की हूँ। वो ये नहीं देखेंगे कि हर इंसान के अंदर कितनी परतें होती हैं, कितनी उलझनें होती हैं। वो ये नहीं समझेंगे कि कभी-कभी हालात ऐसे बन जाते हैं कि इंसान सही और गलत का फर्क भूल जाता है। या शायद जानबूझकर भूलना चाहता है।

हाँ, मुझे अब इस सब में मज़ा आने लगा है। छुप-छुपकर मिलना, झूठ बोलना, हर पल एक नए रोमांच का एहसास… ये सब मेरी आदत बन चुका है। मैं डरती हूँ, पर इस डर में भी एक नशा है। मैं जानती हूँ ये गलत है, पर ये मेरी सच्चाई है। मैं दुनिया की परवाह किए बिना इसे जीना चाहती हूँ, जब तक जी सकती हूँ।

शायद मैं एक पहेली हूँ, जिसे कोई नहीं सुलझा सकता। या शायद मैं बस एक आम लड़की हूँ, जो अपनी उलझनों में फंसी हुई है, और जिसे सही-गलत की समझ तो है, पर उस पर अमल करने की हिम्मत नहीं।

आपकी क्या राय है? क्या मैं वाकई इतनी बुरी हूँ? या समाज का नज़रिया ही इतना संकीर्ण है कि वो किसी की मजबूरी या मानवीय कमज़ोरी को समझना ही नहीं चाहता?

मुझे आपके विचारों का इंतज़ार रहेगा।

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